PLAYS
कुटुंब
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कुटुंब संयुक्त परिवार की कहानी पर आधारित नाटक है। इसमें परिवार द्वारा गृहणी को की जाने वाली उपेक्षा को दर्शाया गया है। आधुनिक युग में जो औरतें समाज सेवा करती हैं या फिर समाज सेवा करने का नाटक करती हैं, उनकी बड़ी प्रशंसा होती है। उन्हें समाज सोसाइटीयों में बहुत मान दिया जाता है। वैसे ही जो औरतें व्यवसाय करती हैं, उनका भी घर में और घर के बाहर बहुत ज्यादा सम्मान होता है। पर ग्रहणी जो पूरा घर संभालती है, बच्चों को सही संस्कार देती है प्रायः कर उसका सही मूल्यांकन नहीं होता। ऐसी ही एक ग्रहणी सिद्धा जैन की कहानी है, कुटुम्ब। यहाँ बड़ी बहु सिद्धा जी जान से घर एवं बच्चों को समर्पित है। मंझली बहू प्रभा को समाज सेवा का शौक है और छोटी बहू रीना को व्यवसाय का शौक है। इनके इस शौक को पूरा करने में इनके पतिदेव व्यापार छोड़ कर इनके साथ लगे रहते हैं। सिद्धा को उपेक्षित किया जाता है। घर में ही नहीं बाहर से आए मेहमानों के सामने भी अपमानित किया जाता है। सिद्धा के स्वाभिमान को चोट पहुँचती है। वह इस अपमान से तिलमिला उठती है। अपना वजूद स्थापित करने की और अपने को सिद्ध करने की प्रतिज्ञा लेती है और नाटकीय परिस्थितियां पैदा कर स्वयं को सिद्ध करती है।
कंगारू कोर्ट
"Media is the fourth pillar of democracy. We are the eyes, ears, and voices of the people".
क्या media सचमुच अपनी ज़िम्मेदारी सही प्रकार से निर्वाह कर रहा है? या यह मात्र कंगारू कोर्ट बन कर रह गया है?
दिवाकर सिंह आज़ाद TV के रियलिटी शो ‘फ़ौलादी शिकंजा’ का तेज़ तर्रार होस्ट है। एक इंटरव्यू के दौरान उसकी झड़प उद्योगपति पारस जैन से होती है। बदले की भावना से वह उस पर उसकी धर्मपुत्री सुजाता के साथ ग़लत संबंधों और हत्या के इरादे से पिटाई का आरोप लगाता है। उसे अपने शिकंजे में फँसा लेता है। क्या पारस जैन इस फ़ौलादी शिकंजे से निकल पाएगा? कैसे? जानने के लिए आइए देखते हैं फ़ौलादी शिकंजा!
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गिरगिट
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गिरगिट भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर व्यंग है। जहाँ सब कुछ संख्या पर निर्भर करता है। राजनैतिक तोड़-जोड़, उठा पटक में क्षेत्रीय पार्टियां की, निर्दलीयों की, तांत्रिकों की भी विशेष भूमिका हो जाती है। एक अकेला निर्दलीय विधायक या सांसद किसी भी पार्टी के पक्ष में या विपक्ष में समीकरण बना सकता है या बिगाड़ सकता है। राजनीति में कोई भी स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता। किसी को साथ लेने में या धक्का मारकर निकालने में कोई भी शर्म, संका, या लिहाज नहीं है। इसी पृष्ठभूमि पर आधारित इस नाटक में सत्तापक्ष और विपक्ष की कश्मकश दर्शायी गयी है। जहां एक अकेला निर्दलीय जिस ओर जाएगा उसी की सरकार बनेगी। कल तक जो दोनों पार्टियों की आंख की किरकिरी था, अब वही पार्टियां उसे अपनी ओर मिलाने के लिए एक से एक लुभावने प्रस्ताव दे रही है। कल जिसके खून के प्यासे थे, आज वही उनका तारणहार है।
अंधेरे-उजाले
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अंधेरे-उजाले नाटक समाज में व्यापक रूप से फैले दहेज की कुप्रथा पर प्रहार करता है। साथ ही साथ समाज में रूतबा और पैसों की अवांछनीय महत्ता पर रोशनी डालता है। कहानी नायिका कृष्णा के इर्द-गिर्द घूमती है जिसका हंसता खेलता परिवार है।
कृष्णा की लड़की की सगाई उसके पति के मित्र के लड़के के के साथ तय होती है। हठात्
कृष्णा के पति एक दुर्घटना में लापता हो जाते हैं। लड़के की माँ को लगता है कि अब उनके पहले के समान पैसे और रुतबा नहीं रहेगा। वह लड़की पर झूठा लांछन लगाकर सगाई तोड़ देते हैं। कृष्णा पर मानो बिजली गिर पड़ती है। ऐसे समय में समाज के एक प्रमुख समाजसेवी आगे बढ़कर अपने बेटे के साथ संबंध करवाते हैं। कृष्णा को उनका असली चेहरा पता चलता है जब वो नित नई मांगे करते हैं। कृष्णा प्रतिकार करने की ठान लेती है और पूरे समाज के सामने उनका पर्दाफाश कर देती है। समाज में व्याप्त अंधेरे-उजालों को दर्शाता है यह नाटक - अंधेरे-उजाले।